KABHI AANA ZINDAGI
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कुदरत को मैं जानता हूँ
पास से गुजरी है मुझसे
धोखा नहीं देती सच्ची है
कल मेरे नज़दीक सी थी
बस छु नहीं पाया उसे
हौसला ही नहीं कर पाया
बिलकुल तुम्हारी तरह
तुम्हे छूने का भी तो
हौसला कहाँ था मुझ में
कुदरत सी तुम भी तो
बदल देती थी वक़्त को
दिन में तारे और रात को…??
कुदरत जैसी तुम इस लिए भी थी
क्यों जो मर्ज़ी तो तुम्हारी होती थी
जैसे कुदरत की होती है !!!
मैं तो ज़मीन सा होके रह गया
कुदरत का हर करिश्मा जो सहना था
पर आज ज़मीन एक सवाल करती है
मेरी कुदरत कैसी है ???
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